कुछ अपने मन की

वो महफ़िल में आये,
और दिल-ए-महफ़िल को चुरा ले गए..
आलम ऐसा हुआ इस महफ़िल का,
हम पानी को शराब समझकर पी गए…
हम निकले थे ज़माने को अपना बनाने..
हम निकले थे ज़माने को अपना बनाने..
पर पूरी कायनात में कोई बेगाना ही ना मिला…
इन हसीनों के भंवर में ना पड़ बन्दे,
तू हो जाएगा कंगार..
फिर याद आएगा, पी.एम. ने कहा था..
जितनी लम्बी चादर..उतने ही पैर पसार..
हर इंसान को देख कर दिल कुढ़ा जा रहा है,
हर दिल दिन-दिन मरा जा रहा है..
और आप कहते हैं..
“तुम जियो हज़ारों साल-साल के दिन हों पचास हज़ार?”

4 thoughts on “कुछ अपने मन की

  1. हम निकले थे ज़माने को अपना बनाने..
    हम निकले थे ज़माने को अपना बनाने..
    पर पूरी कायनात में कोई बेगाना ही ना मिला…

    वाह! बहुत सुंदर पंक्तियाँ….. बहुत अच्छी लगी यह कविता….


    http://www.lekhnee.blogspot.com

    Regards…

    Mahfooz..

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  2. PM… i can sense the feelings behind it.. aakhir tum bhi ek 21-22 saal ke furstaye hue hi bande ho…
    isi furstation ko kaafi aachi terah poem ke form me kaha… dil ki baat,no bakwaas!!!

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