इस घुटते मरते यौवन में कब चिंगारी सी भागेगी?
काला अँधा सा ये जीवन, कैसा है यह बिका बिका?
क्यों हर चेहरा मुरझाया सा, क्यों है हर तन थका थका?
कब दौड़ेगी लाल लहू में, इक आग यूँ ही बैरागी सी?
स्फूर्ति-समर्पण-सम्मान सघन सी, निश्छल यूँ अनुरागी सी
कब इस शांत-लहर-डर मन में…
आँखें देखो धँसी-फटी सी, अंगूठे कैसे शिथिल-कटे
कपड़े ज्यों रुपयों की माला, आत्म-कपड़े चीथड़े-फटे
कब तक बिकेगा ये स्वर्णिम यौवन, यूँ ही कौड़ी कटोरे में?
आँखें तेज़, ऊँचा सीना, कदम हो विजयी हिलोरे ले
कब इस शांत-लहर-डर मन में…
क्यों है सोया-खोया जवां ये, आँखें खोले, खड़े हुए?
देखते नहीं सपने ये जिनमें, निद्रा-क्लांत हैं धरे हुए?
कब इन धूमिल आँखों का जल, लवण अपनी उड़ाएगा?
स्पष्ट निष्कलंक हो कर के फिर से, सच्चाई को पाएगा
कब इस शांत-लहर-डर मन में…
कैसा है ये स्वार्थ जो इनमें, अपने में ही घिरे हुए
५ इंच टकटकी लगाए, अपनी धुन में परे हुए
ज़िन्दा है या लाश है इनकी, नब्ज़ें ऐसी शिथिल हुई
हकीकत की लहरा दे सिहरन, कहाँ है वो जादुई सुई?
कब इस शांत-लहर-डर मन में…
भौतिकता में फूंकी जाती, देखो जवानी चमकती सी
बस पहन-ओढ़-खा-पी के कहते, ज़िन्दगी है बरसती सी
कब बिजली एक दहकती सी, इस भ्रांत स्वप्न को फूंकेगी?
फिर जल-बरस बेहया सी इनपर, यथार्थ धरा पर सुलगेगी
कब इस शांत-लहर-डर मन में…
बस श॥दी करवा लो
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आपकी लिखी रचना “पांच लिंकों का आनन्द में” सोमवार 28 दिसम्बर 2015 को लिंक की जाएगी…………… http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ….धन्यवाद!
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प्रतीक आपकी इस कविता ने द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी की कविता 'उठो धरा के अमर सपूतों पुन: नया निर्माण करो' की याद दिला दी ।वीर रस की कविता है पर अगर थोड़ी सरल भाषा होती तो स्कूली बच्चों को भी समझ आ जाती जो कल के युवा हैं।-महिमन
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महिमन सर,
आपके सुझाव के लिए धन्यवाद! इस बार शायद मैं खुद अपनी भाषा को परख रहा था.. अगली बार आम युवाओं के लिए भी ज़रूर कुछ लिखूंगा..
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यशोदा जी, आपका बहुत बहुत आभार!
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एकदम सटीक ..आतंरिक द्वंद्व और सामाजिक खोखलेपन पर ये कविता।
लिखते रहिये , हम पढ़ते रहेंगे 🙂
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टिप्पणी के लिए धन्यवाद आनंद भईया..
यूँ ही पढ़ते रहिये 🙂
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