भौतिकवादिता का उड़ता तीर जिस तरह हमने कुबूला है, अपनी इस सुन्दर कृति को ऐसा देख कर… ख़ुदा भी आसमां से जब ज़मीं पर देखता होगा… क्या से क्या हो गया… ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ, क्यों हुआ। ऐसी हालत में ऊपरवाले का मदीरापान करना निषेध नहीं हो सकता। डूबते और दुखते को पहले मय का सहारा और तत्पश्चात् किसी दोस्त का सहारा।
आजकल तो अंतरजालीय संचार माध्यम (असमा) यानी कि सोशल मीडिया पर हर पोस्ट बिकाऊ लगता है। कौन किसके बारे में क्या पेल रहा है, अच्छा, बुरा, गलत, सही, जैसा भी हो, सब जैसे मुनाफ़े की कोई तरकीब और जुगत लगा रहे हों।
न चैन, न अमन है
खरीदना सबको गगन है
बस एक अविरल अगन है
सब धन में मगन हैं
अरे महाशय, जब सैनिकों की अर्थियों की भी लोग दूकान खोल लें तो फिर बाकी सबके बारे में कहना मक्कारी होगी। हर मौत पर हाय-तौबा मच रही है, लोग चिल्ला रहे हैं, खबरिया चीख रहे हैं, नेता-अभिनेता मौकों को तलाश रहे हैं और हम जैसे टिटपुन्जिये लेखक भी ऐसे विषयों पर लिख कर पैसे कमाने की होड़ में लगे हुए हैं। मैं ना कहता था, सब धंधा है? कोई दहेज ले कर शादी का धंधा कर रहा है तो कोई झूठी दहेज की साज़िश रचकर शादी का धंधा कर रहा है। सब वेश्यावृत्ति हो चली है जनाब, संभल जाईये।
अगर अभी तक आप इस लपेटे में नहीं आएँ हैं तो जल्द ही आएँगे और अगर बचना चाहते हैं तो सिर्फ एक ही उपाय है। संन्यास ले लीजिये। जी हाँ, सही पढ़ा। फकीर बन जाइए। घुस जाइए घने जंगलों की आड़ में जहाँ किसी कारोबारी को आपकी बू तक न आए नहीं तो वो वहाँ आ कर आपका भी धंधा बना डालेगा। दिक्कत यही है कि कम्मकल ये नए तरह के कारोबारियों को बिजनस करने के लिए अब दूकान खोलने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती। ये छोटा-अदना सा जो चल-अचल, तार-रहित, तेज-बोंगा यंत्र आपके हाथ में है ना, बस यही सब हड़कंप की जड़ है।
ये बिजनस की बिमारी इसी यंत्र से फैलती है। चाहे सीने से लगाइए, चाहे लंगोट की जेब में रखिये, चाहे कानों पर चिपकाइए, ये बिमारी आपको कैसे भी जकड़ लेगी। और ऊपर से मशक्कत ये कि आज के ज़माने में अगर ये आपके पास न हो तो लोग बोलेंगे,
“क्यों, बाबा आदम के बाबा हो क्या?”
“क्यों, शेर शाह सूरी के चचा हो क्या?”
“क्यों, रानी एलिज़ाबेथ की दाई माँ हो क्या?” जब ऐसे ताने सुनेंगे तो आदमी अपनी एक क्या, दोनों गुर्दे निलाम कर देगा पर इस यंत्र को फेफ़ड़ों से लगा लेगा, तभी जा कर उसके सीने को ठंडक मिलेगी।
देखिये, मैं हूँ लेखक, और मेरा काम है आपको आगाह करना। मेरा दायित्व कोई सामाजिक बदलाव का थोड़े ना है। उसका ठेका तो पहले से ही बुद्धिजीवियों ने हड़प रखा है। मैं तो बस लिखता हूँ और चुप हो जाता हूँ नहीं तो कल हमारी अर्थी की खबर भी छप जाएगी और आप सब मिलकर उसपर भी दूकान खोलकर बैठ जाएँगे और मन ही मन मेरी बात याद करेंगे, “मैं न कहता था, सब धंधा है!”
कड़वा लगा, बहुत कड़वा
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सटीक बातें! Satire on our society and duble standards��
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ब्लॉग बुलेटिन की विजयदशमी विशेषांक बुलेटिन, “ब्लॉग बुलेटिन परिवार की ओर से विजयादशमी की मंगलकामनाएँ “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
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कड़वी बातें बोलनी भी बहुत ज़रूरी हैं 🙂
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इस दोगलेपन से ही तो नफरत है हमें!
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आपका बहुत-बहुत आभार..
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कङवी सच्चाई, कङवी दवाई की तरह।
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