ये देश अजूबों भरा देश है। ये जितना संवेदनशील है उतना ही सहनशील भी। मतलब, अचानक से कोई हम पर हमला बोल दे तो भी हम तुरंत विचलित नहीं होते। हम पहले परखते हैं कि हुआ क्या, और फिर उसपर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करते हैं। वैसे तो अंतर्जालीय संचार माध्यम (असमा) यानी कि सोशल मीडिया पर अब बिना सोचे समझे ही हो-हल्ला मच रहा है तो अब इस सहनशीलता वाली बात पर हम प्रश्न बरसा सकते हैं।
तो पहले तो हुआ ये कि नोटबंदी ने आ कर हमें सामने से घोंचा मारा और पूरा देश झन्ना उठा। एक पल को तो लोग सन्न से खड़े रह गए कि हुआ क्या? हमको जब यह खबर मिली तो हम भजिया चबा रहे थे और हमें लगा कि कोई तफरी कर रहा है इसलिए हमने भजिया को निराश नहीं किया और उसे पूरा खा कर ही आगे की कार्यवाही देखी। फिर तो हमें भी लगा झटाक से झटका और हम भी हो गए डंडे की तरह शाश्वत खड़े। मुझे लगता है कि ये वही पल था जहाँ देशवासियों ने गलती कर दी। लोगों को इस अवस्था में इस झटके को नहीं सहना चाहिए था। अरे बैठ कर भी तो झटके खाए जाते हैं। खामखाँ सरकार को यह घटिया उपाय सूझ गया कि देशवासी खड़े होने में माहिर हैं तो इसलिए इनको पंक्तियों में खड़ा किया जाए और बोली लग गई ५० दिन की! आहा पूरे पचास दिन।

फिर क्या था? पहले कुछ दिन तो त्राहि मची और लोग अपने खड़े होने के नए-नए अंदाज़ टीवी पर दिखाने लगे और पैर इधर से उधर हुआ नहीं कि सरकार खेल के नियम ही बदल देती थी। नोटबंदी से एक चीज़ तो तय बात सामने आ गई है कि सरकार भी बहुत फटाफट काम कर सकती है। इस मिथ्या से तो परदा उठ गया है कि सरकारी कार्यवाही है गाय की जुगाली की तरह धीमी-धीमी। हाँ, वो काम अच्छा-बुरा, सही-गलत है, इसपर फिलहाल कोई बहस नहीं करेंगे यहाँ।
तो हाँ, ये खड़े होने का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। हाँ, अलबत्ता थोड़ा कम और थम सा गया था, पर तभी मंच पर आसीन हुए एक और दिग्गज इस देश के। उन्हें लगा कि यही मौका है, लोगों के ये खड़े होने की आदत को भुनाया जाए और इसी सिलसिले में अपना एक हुक्म सामने सरका दिया। माननीय उच्च न्यायालय ने यह कह दिया है कि अब हर फिलम के शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाया जाए और सभी दर्शक वही इस निरंतर चलते क्रिया, यानी कि खड़े रहकर हमारे राष्ट्रगान का मान बढ़ाएँ। इस पर भी असमा में बहुत भूचाल मचा पर भईया ये देश है भारत, और यहाँ पर एक बार कोई आदेश पारित हो गया तो सदियाँ निकल जाएँ, पर नया आदेश न निकले, हाँ! जब कुछ दिनों बाद न्यायालयों में भी राष्ट्रगान बजने का प्रस्ताव रखा गया तो वो हो गया एक सिरे से खारिज। क्यों? भईया, ज़्यादा हेपलो मत। बेसी क्यूँ-क्यां किये तो धर के अन्दर कर दिए जाओगे और वहाँ तो बाँध के खड़ा कर देंगे। फिर करते रहना बंधे-बंधे, खड़े हुए सवाल।
यहाँ हमको बचपन से ही खड़े होने की आदत से वाकिफ करवा दिया जाता है। कभी स्कूलों में हाथ जोड़ के, कभी प्रिंसिपल के कमरे के बाहर, कभी गलत मोज़े पहन कर आने पर अपनी ही कक्षा के बाहर, कभी राशन की दुकान पर, कभी रेल-टिकट की खिड़की पर, कभी स्टेडियम के बाहर, कभी मंदिर के बाहर, कभी कॉलेज के फारम के लिए, कभी आईफ़ोन के लिए, कभी किसी फटीचर गायक के कॉन्सर्ट के लिए, कभी हस्पताल में, कभी मरघट पर और भी न जाने कहाँ-कहाँ। ये खड़ा होना हमारे अन्दर, इतना भीतर तक ठूँस-ठूँस कर घुसेड़ दिया गया है कि अब हमें कहीं लाइन न दिखे तो अचरज सा होता है। हम वहीं पर आधे घंटे तो यही सोचकर खड़े रह जाते हैं कि ज़रूर आज आपने कुछ गलत किया है या कुछ भूल रहे हैं, तभी पंक्ति नज़र नहीं आ रही।
अब करें भी तो क्या? भारत है बच्चे पैदा करने का कारखाना। बच्चे पैदा कर के छोड़ दिए जाते हैं और वो कब-कहाँ-कैसे किसी पंक्ति में आ कर खड़े हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। इतनी भीषण आबादी वाला देश है तो लाज़मी है कि कतारों की तो कमी नहीं ही होगी। तो फिर चाहे सरकार करे, न्यायलय करे या फिर स्कूल का प्रिंसिपल, क्या फर्क पड़ता है? हम तो सदियों से खड़े होते आए हैं, खड़े रहेंगे। कोई हमें कहे ना कहे पर खड़ा होना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, हाँ बस!
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