हिन्दी की गुणवत्ता: खरी-खोटी

पिछले कई समय से मैं अंतरजाल पर हिन्दी भाषा के लिए व्याकरण दरोगा (अंग्रेजी में जिसे Grammar Nazi कहते हैं) बन रखा हूँ। कहीं भी गलत हिन्दी पढ़ता हूँ तो उस लेख/ट्वीट इत्यादि वाले इंसान को उसके बारे में जानकारी देता हूँ और सही करने को भी कहता हूँ। ऐसा इसलिए है कि जिस तरह कोई गलत अंग्रेजी लिखे तो लोग उसका मज़ाक बनाने लग जाते हैं, ठीक उसी तरह जब तक हम हिन्दी भाषा को भी उस दर्जे तक नहीं ले कर आएँगे, तो हिन्दी गुणवत्ता की जो दयनीय स्थिति है, वो ज्यों की त्यों बरकरार रहेगी।

पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी भाषा में लिखना, पढ़ना अंतरजाल पर बहुत ही तेज़ी से बढ़ा है जो कि एक बहुत ही उत्साहवर्धक स्थिति है।

किन्तु केवल माल की मात्रा बढ़ने से उत्पाद सफल नहीं होता। अपितु उसकी गुणवत्ता भी बरकरार या उसे बेहतर करने का प्रयास हम सबको मिलकर करना होगा।

आपको कुछ उदाहरण दे कर बताना चाहूँगा कि किस तरह इस देश के दिग्गज और हिन्दी के झंडाबरदार भी सीधी-सरल हिन्दी लिखने में कितने असक्षम हैं। किसी से मेरी आपसी अनबन नहीं है, किन्तु जो भाषा के प्रचार-प्रसार में लगे हैं और खुद ही उस भाषा का गलत उपयोग करते हों, उनसे फिर हिन्दी को सही दिशा में ले जाने की क्या अपेक्षा रख सकते हैं? मैंने अपनी पिछली पोस्ट में भी कहा था कि इस देश में शायद बस १०% लोग ही होंगे जो हिन्दी को सुगमता और बे-त्रुटि लिख सकते हों और यह विश्वास मेरा दिन-ब-दिन और प्रगाढ़ होता जा रहा है।

प्रथम उदाहरण:

भारत के राष्ट्रपति

उपरोक्त ट्वीट में हैवानियत शब्द का प्रयोग हमारे जवानों के लिए किया गया है जो कि उस हमले में वीरगति को प्राप्त हुए। जब पहली बार मैंने ये ट्वीट देखा तो मेरी आँखें फटी की फटी रह गयीं कि कहीं मैं गलत तो नहीं पढ़ रहा या फिर हैवानियत का अर्थ कुछ और भी होता है जो कि मुझे शायद नहीं पता? पर मैंने जब हैवान शब्द के पर्यायवाची निकाले तो सिर्फ ये मिले:
“अनियंत्रित, अनैतिक, असभ्य, उच्छृंखल, कामी, पतित, पाशविक, बर्बर, बेलगाम, मनमाना, लम्पट, व्यभिचारी, स्वेच्छाचारी, वहशी, हैवान, अति-स्वतंत्”

यह तो तय है कि उपरोक्त पर्यायवाची शब्दों में से एक भी हम अपने वीर जवानों के लिए उपयोग नहीं कर सकते हैं। यानि कि भारत के राष्ट्रपति की ओर से जिसने भी ट्वीट किया उसकी हिन्दी बेहद डगमगाई हुई है और यह अच्छे संकेत नहीं हैं। मैंने इसपर ट्वीट भी किया कि गलत शब्द का प्रयोग हो गया है किन्तु अपेक्षानुसार ना ही इसे ठीक किया गया और ना ही इसे हटाया गया।

पर इससे भी गंभीर बात यह है कि इस ट्वीट के उत्तर में एक भी उत्तर इस त्रुटि को पहचानने या पहचान कर बता पाने में असक्षम था और मुझे एक भी जवाब नहीं मिला जिसमें इस शब्द को ले कर किसी ने आपत्ति जताई हो। तो ये तो रही बात भारत के सर्वोच्च और प्रथम नागरिक के हिन्दी की।

दूसरा उदाहरण:

दैनिक जागरण

कल ही अनन्त विजय जी का एक ट्वीट देखा जिसमें दैनिक जागरण हिन्दी में मौलिक शोध को बढ़ाने के लिए कुछ प्रयास कर रहा है और देखकर मुझे भी बहुत ख़ुशी हुई कि अपनी भाषा के लिए लोग अब प्रयासरत हो रहे हैं।

इसी उत्सुकता में मैंने भी वेबसाइट पर जा कर जानना चाहा कि आखिर ये है क्या? पर उस एक पन्ने में जितनी हिन्दी की गलतियाँ देखीं, उससे भ्रम होने लगा कि क्या ये वाकई में हिन्दी में शोध को बढ़ावा देने का प्रयास है? अगर खुद की हिन्दी सटीक नहीं होगी तो हम दूसरों को किस शोध के लिए बढ़ावा देने के काबिल होंगे?

इस वेबसाइट में पूर्ण विराम की जगह फुल स्टॉप का प्रयोग हो रहा है। कि और की का अंतर तो पता ही नहीं है। और समृद्धि जैसे सरल शब्द का व्यापक उपयोग किया गया है और हर जगह वर्तनी गलत है। इस एक पन्ने पर इतनी त्रुटियाँ होना, और वो भी भारत के अग्रणी हिन्दी अखबार के वेबसाइट पर, ये बात हजम नहीं हुई और मैंने अनंत जी को वापिस लिखा भी, कि पन्ने पर कई त्रुटियाँ हैं जिनमें सुधार की आवश्यकता है। पर फिर सोचा कि केवल बोलने से नहीं होगा इसलिए अलग से गूगल डॉक् बना कर पूरे लेख को सही कर के भेजा कि आप सीधे मेरे द्वारा सम्पादित लेख का उपयोग कर सकते हैं। उनका कोई उत्तर नहीं मिला और ना ही मिलने की उम्मीद है।

मैं यह मानता हूँ कि सीखने की, गलती करने की और उन्हें सुधारने की कोई उम्र नहीं होती है।

पिछले पोस्ट में मैंने हिन्दी की गुणवत्ता के बारे में लिखा था और एक जगह वर्तनी की गलती भी हुई थी जिसकी तरफ एक पाठक ने ध्यान दिलाया (यहाँ देखें)। उनका आभार व्यक्त करते हुए मैंने उसे सुधारा और यही सीखने की प्रक्रिया होनी चाहिए।

ट्विटर पर राहुल देव जी जैसे दिग्गजों से भी कभी-कभार बात हो जाती है और एक ट्वीट में मैंने उनकी गलतियों के बारे में बताया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार भी किया। जब तक हम हिन्दी के पाठक, लेखक और पथप्रदर्शक हिन्दी की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देंगे और उस ओर कदम नहीं बढ़ाएँगे, तब तक भाषा का बढ़ना और बाकी भाषाओं के समक्ष टिक पाना और भी कठिन हो जाएगा।

अगर हम अपना स्तर ही गिरा देंगे तो फिर उस भाषा की आत्मा को मारकर भला उसे जीवित कैसे रख पाएँगे?

इसी सोच के साथ इस लेख को विराम देता हूँ। अगर आपकी ओर से कोई भी टिप्पणी हो तो ज़रूर बताएँ। एक-दूसरे से सीखकर ही हम अपनी भाषा को आगे ले जा पाएँगे।

 

 

 

2 thoughts on “हिन्दी की गुणवत्ता: खरी-खोटी

  1. अगर खुद कि हिन्दी सटीक नहीं होगी तो हम दूसरों को किस शोध के लिए बढ़ावा देने के काबिल होंगे?,

    is pankti me pahli ki me badi maatra aani chahiye

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