अकेला जूता

समुद्रतट पर अकेला जूता

समुद्रतट पर रेत से भरा एक फटा जूता देखा मैंने
देखा तो बस टकटकी लगाए खड़ा रहा
पता नहीं क्यों उसके बिखरे धागों में कहानी टपक रही थी
अभी पढ़ नहीं पा रहा था, पर उसकी जिजीविषा झलक रही थी

सोचता हूँ
इस एक जूते ने न जाने कितनों की कहानियाँ देखी-सुनी होंगी
इस एक जूते ने अपने छोटे जीवन में कितनी ज़िंदगियाँ जी होंगी
इस एक जूते ने मुझसे भी अधिक परेशानियाँ झेली होंगी

पर कौन है जो इस रेत भरे जूते को उठाएगा?
कौन है जो इसे साफ़ कर के, इसे अपने पास बिठाएगा?
कौन है जो इसकी चूँ करती आवाज़ से शब्दों को समझ पाएगा?
कोई तो होगा, पता नहीं कौन?
मैं तो बस टकटकी लगाए इसे देख रहा हूँ
शायद यह भी मुझे टकटकी लगाए रेत भरी आँखों से देख रहा होगा?

पर फिर ख्याल आया, इसका जोड़ीदार कहाँ है?
आसपास नज़र घुमाई, तट तो वीरान जहां है
इस छोटे से जीवन में इसने बिछुड़न भी सहा है
कौन है जो इसके दर्द का गवाह है?
कितने वर्ष इन्होंने साथ बिताए होंगे वो पल
मिलकर चले होंगे पग-पग, डगर-डगर
ऊँचे पहाड़, गहरे पानी, कीचड़-कमल
हर जगह साथ रही होगी इनकी चहल-पहल
पर अब ये अकेला है
मायूसी से घिरा है
अब न चहल-पहल है, न चर्र-मर्र है
अब बस वो, ये रेत और बहता सागर है

क्या यह अपने मालिक को याद करता होगा?
वही, जिसने इसे सबसे पहले चमकते शीशे के पीछे से देखा होगा?
वो घुसा होगा झटपट उस दुकान के अन्दर
निकला होगा, रूपए देकर, जल्दी से इसे पहनकर
न जाने किस-किस घाट का पानी इसने चखा होगा
कभी घर, कभी दफ्तर, सड़कों पर फिरा होगा
कभी सही होगी चिलमिलाती धूप
तो कभी बारिश में भीगने के बाद पड़ा रहा होगा सूख
कभी ये दूसरे जूतों के नीचे चरमराया होगा
कभी मोची के हाथों फिर से बनाया गया होगा
कभी सना होगा ये धूल भरी गर्दी से
कभी इसे पॉलिश ने नया जैसा चमकाया होगा
कितने वृत्तांतों से भरा इसका जीवन रहा होगा
कभी ख़ुशी, तो कभी ग़म तले चला होगा

मैंने सोचा न था
कि एक जूते को देखकर भी इतने ख्याल आएँगे
उसके जीवन के कारनामे मन में घुड़मुड़ाएँगे
हर निर्जीव वस्तु भी अपना जीवन तो जीती ही है
भले ही उनमें जान न हो, पर उनकी भी अपनी आप-बीती है

अपने सोच से छिटककर मैं बाहर आया
जब एक अधकिचरा आदमी उस जूते के करीब आया
उसकी फटी हालत देख मैं थोड़ा सकपकाया
पर उसने तुरंत ही उस जूते को अपने हाथों में उठाया
उठाया यूँ जैसे कोई विश्व कप उठा लिया हो
मुस्काया यूँ जैसे मूल्यवान हीरा पा लिया हो
झट उसने जूते को झंकझोर मिट्टी को निकाला
सरपट उसे अपने एक पैर में डाला
एक-दो बार पैर उठा-पटक कर देखा
चर्र-मर्र करती जूतों को आगे पीछे देखा
जब संतुष्टि उसके चेहरे पर झलक आई
उसने वहाँ से अपनी ११ नंबरी गाड़ी चलाई
उसे देखता रहा मैं तट पर दूर तक जाते हुए
उसकी असमान ऊँचाई को ताकते हुए
तब तक, जब तक वो अब मेरी आँखों से परे था
मैं वहीं जड़ सा खड़ा सोचता रहा
सोचता रहा कि वो जूता पुनः निकल पड़ा है
एक नई कहानी का साक्षी बनने
एक कहानी जो न कोई सुनेगा, न कोई सहेगा
एक कहानी जो वो अकेला ही देखेगा
और अपने फटे तलों की तह में रखेगा
क्या होगा उसकी कहानी का अंत?
पता नहीं
पर वो निकल पड़ा है, यही सही!

अब उस जूते की जगह वो खाली रेत है
जो बिखरी पड़ी है तट पर
जो कुछ समय पहले उसकी कहानी का हिस्सा थी
पर अब है, अपनी अगली कहानी के इंतज़ार में।

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3 thoughts on “अकेला जूता

    1. अकेले तो खैर हम सब ही हैं, पर अपने अकेलेपन पर भी कुछ अब लिखा जा सकता है 🙂

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      1. AKELE PAN PAR SIVAYE CHUPPI K KUCH NHI LIKHA JA SKTA, KYOKI YE EK ESI FEELING H JISME NAME TO PURE HOTE HO OR NAHI ADHURE, ESS ZASBAT KO BAS MEHSUS KIYA JA SKTA.

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