झूठ की धुलाई वाला सच

एक सुबह मन में निश्चय कर के उठा कि सच तो क्या, उसकी नानी भी ढूँढूँगा। पता नहीं खुद से भी झूठ बोल रहा था या सच में ऐसा सोच लिया था। पर जो भी था, मन में ठान तो लिया था।

नहा-धोकर, खा-पीकर एक सरकारी कार्यालय में घुसा तो देखा कि चपरासी झूठ की धुलाई कर रहा है। मैंने पूछा कि ये क्या कर रहे हो तो बोला कि झूठ को धो-धोकर सच बना रहा हूँ। जब पूछा कि ये किसका झूठ है? तो कहने लगा कि बड़े साहब का झूठ है जिसे वो नित-प्रतिदिन यूँ ही धो-धोकर सच-सा दिखाता है। मैं स्तब्ध हो कर वहाँ से सीधे बड़े साहब के कार्यालय में घुसा तो देखा वो कागज़ पे कुछ लिख-लिखकर काट रहे हैं और थोड़े से परेशान से हैं। नमस्ते कहते हुए मैंने उनसे उनकी उद्विग्नता का कारण पूछा तो बोला कि एक झूठ को सच बनाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन कमबख्त हो नहीं पा रहा है। जब मैंने जानकारी चाही कि ये किसका झूठ है जिसकी वो चपरासी के झूठ की धुलाई की तरह कलम की सियाही से सच बना रहे हैं तो बड़े बाबू धीरे से बोले कि फलाने नेता जी के झूठ को धोकर सच बनाने का काम उन्हें मिला है, बस इसी में व्याकुल हुए पड़े हैं।

मैं जल्दी-जल्दी कार्यालय से निकला पर निकलते हुए देखा कि उस सरकारी कार्यालय का हर आदमी अपनी-अपनी जुगत से किसी न किसी झूठ की धुलाई में धुन लगाए बैठा है। कुछ को कंप्यूटर जैसी नई तकनीक पर भी पुराने, सड़े-गले, पौराणिक और बीते युगों के झूठों को साफ़ करते हुए देखा तो हैरानी हुई कि आदमी कितना भी विकास कर ले किन्तु अपनी मूलभूत स्थिति से नहीं उभर पाता।

आगे बढ़ा तो संसद भवन की ओर निकल पड़ा। नेताओं का जमावड़ा एक दूसरे के झूठों को धो-धो कर सत्य की तरह देश के सामने प्रस्तुत करता दिखा। छुटभईये नेतों के झूठ बाबू धो रहे थे और ये छुटभईये नेते बड़े नेताओं के झूठों को मांज-मांज कर साफ़ कर रहे थे। कुछ तो इस धुलाई-सफाई अभियान में अपनी जिह्वा का उपयोग भी करते हुए दिखे। उन जीभों को बाद में किसी मिठाई की आस जो थी। झूठ के मटके की कालिख को रगड़-रगड़ कर जब सब नेता थक गए तो उन्होंने दिन के लिए जनता की ‘सेवा’ से सेवानिवृत्ति ली।

अब मुझे भूख लग आई थी तो मैं मण्डी में घुसा कि बिलखते पेट में भी कुछ घुसाया जाए नहीं तो सत्य को ढूँढने का मेरा अभियान बीच रास्ते ही दम तोड़ देगा। पेड़ा-कचौड़ी वाला डालडा में झूठ को तलकर ‘शुद्ध घी’ में बने हुए सत्य का खाद्य सामान बेचता हुआ दिखा। मैं अन्दर जाकर बैठा तो बैरा आकर साफ़ पानी में धोयी हुई गिलास में शुद्ध पानी डाल गया। ऊपर दीवार पर लिखा था कि हमारे यहाँ प्रतिदिन केवल स्वच्छ सामग्रियों का ही उपयोग होता है। नीचे बेसिन के नाले के पास बेचारे चूहे अपने परिवार के लिए दाना-पानी लेकर जाते हुए दिखे। मैंने हलवाई के लिए भगवान से पुण्य की गुहार लगा दी। यहाँ का सत्य खा कर मैंने सच्ची डकार ली और शहर में वापिस अपने कदम जमाए।

हर दुकानदार अपनी-अपनी चीज़ों को सबसे बढ़िया और अन्तराष्ट्रीय बताकर पास के गाँव में बने उत्पाद बेचकर झूठ की अच्छी धुलाई कर रहा था। यहाँ पर झूठ की धुलाई से बिका हुआ सच सस्ते और महँगे के बीच फँसा हुआ दिखा
सरकारी स्कूलों का दौरा किया तो पहले तो स्कूल और फिर वहाँ के अध्यापकों ने देश और दुनिया के भावी नागरिकों को यूँ घोट-घोटकर धुली हुई झूठ का घोल पिलाने का बीड़ा उठाया था कि दृश्य देखते ही बनता था। हर विषय का अध्यापक अपने विषय को जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण बता रहा था। कोई तो महीनों बाद स्कूल आया था लेकिन रजिस्टर में उसकी उपस्थिति हर दिन की दिखा दी गयी थी। रुपयों से धुली हुई झूठ सच से भी अधिक सच लगती है, ये उन कोरे कागजों पर लगे चिन्ह अपनी काली स्याही से स्पष्ट दर्शा रहे थे। इतने वर्षों बाद भी स्कूल की सच्चाई, या यूँ कहें कि स्कूल के झूठ में कोई बदलाव न देखकर मेरा दिमाग भन्ना गया और मैं भागा-भागा पास ही में रह रहे मेरे एक रिश्तेदार के यहाँ पहुँचा।

परिवारों में जिस बारीकी और उत्कृष्टता से झूठ की धुलाई, भुनाई, मुड़ाई और खुदाई कर सत्य के समान परोसी जाती है, वैसा विश्व के किसी भी संस्थान में नहीं होता। वहाँ पर उन्होंने घर पर आ रही शुद्धतम दूध से बनी चाय की प्याली पकड़ाते हुए अपने पारिवारिक जाल का तानाबुना तना और नाश्ते के साथ उसे भी धीरे-धीरे परोसने लगे। चाव से चने चबाते हुए मैंने दाँतों तले ‘उनका’ वाला सच भी चबाया और मन ही मन मुस्काता हुआ कुछ ही समय में वहाँ से खिसका जब मुझे लगा कि इतनी सच्चाई अब मुझसे सही नहीं जाएगी।

ढलते-ढलते सच वाली शाम हो गयी और मैं डूबते सूरज की ओर तकते हुए सोचने लगा कि ये सूरज बंदा कभी भी झूठ-मूठ का सवेरा नहीं करता है, बस जैसा है वैसा ही दिखता है। जब इसे बादल ढक लेते हैं तो भी यह बदलता नहीं, होता वैसा ही है। बस दिखता कुछ अलग सा है। पर्यावरण के कितने ही पहलू हैं जो कभी झूठ नहीं बोलते/दिखते और ना ही झूठ की धुलाई वाला सच हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। अँधेरा होते-होते मैं तारों के सत्य को घूरता हुआ अपने घर में घुसा और धम्म से आराम कुर्सी पर बैठ गया। मैं जिस सत्य की खोज में पूरे नगर घूमा और लोगों में ढूँढना चाहा, वो तो मेरे आसपास, उगते सूर्य, टिमटिमाते तारे, लहलहाते पौधों और यहाँ तक कि आदमी को छोड़कर बाकी सब जानवरों में ही था। झूठ की धुलाई वाला सच कितना भी साफ़ क्यों न हो, इन सब सत्य के आगे वो फीका ही रहेगा। पर उसे पाना और फिर अपनाना इतना सरल भी नहीं है।

फिर एकाएक ध्यान आया कि सपने सच होते हैं और मैंने झट पलंग पर पैर पसारे और सच की खोज में स्वप्नलोक की ओर प्रस्थान किया।


ये लेख अब ऑडियो-विडियो के रूप में भी उपलब्ध है (अंकुर गुप्ता सर का अत्यंत आभार)

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