एक सुबह मन में निश्चय कर के उठा कि सच तो क्या, उसकी नानी भी ढूँढूँगा। पता नहीं खुद से भी झूठ बोल रहा था या सच में ऐसा सोच लिया था। पर जो भी था, मन में ठान तो लिया था। नहा-धोकर, खा-पीकर एक सरकारी कार्यालय में घुसा तो देखा कि चपरासी झूठ की … Continue reading झूठ की धुलाई वाला सच
विकलांग कौन?
उसकी उन्मुक्त खिलखिलाहट सुन, मैं खुद से प्रसन्न हो उठाउसके अधरों पर हँसलाली देख, मैं खुद होठों को मोड़ उठाउसकी ज़िन्दादिल बातें सुन, मैं दुःख को छोड़ एक होड़ उठाउसकी आज़ाद गीतों को सुन, मैं खुद को खुद में खो उठाजब देखा उसे ‘न देख पाने’ की कमी को पटखनी देतेमैं खुद को सवालों से … Continue reading विकलांग कौन?
ब्लॉगिंग के १० वर्ष – ये कहाँ आ गए हम
कल ही की तो बात थी जब अपने कॉलेज के एक छोटे से कमरे में बैठे, गरमाती लू के चक्कर में किंवाड़ को खुला रखे, अध्-टूटी खिड़कियों से सरसराती गर्म-ठंडी हवा, खट-खट कर चलते पंखे और अपनी पूरी लौ के साथ जलते उस ट्यूबलाइट के तले ये सफ़र शुरू हुआ था।
बवाली लोग
"अरे भूकंप आया, भूकंप आया, भागो भागो, जान बचाओ" बस इतना सुनना था कि कमरे में बैठे दसों लोग हाथ उठाकर भागे पर जैसे ही आँगन में आये तो समझ आया कि बगल वाले अवैध घर को गिराने के लिए क्रेन कार्य पर लगा हुआ है और यही कारण है कि थोड़ा इनका घर भी … Continue reading बवाली लोग
हिन्दी की गुणवत्ता: खरी-खोटी
हिन्दी की गिरती गुणवत्ता पर कुछ निजी विचार (उदाहरणों के साथ)
हाय री हिन्दी!
हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य पर सरकार ने जो बड़े-बड़े परदे छपवाए थे, उनमें भी अंक सारे अंग्रेजी में ही थे। कैसी विडम्बना है कि हिन्दी दिवस मनाते वक़्त भी वो अंग्रेजी अंकों (और शब्दों) का प्रयोग कर रहे थे।
ऐ माँ, मोहे क्षमा कर दीजे
समाज में बढ़ते दिवसों के चलन पर आधारित यह व्यंग्य उन बिन्दुओं को छूता है जो अनजाने में हमारा हिस्सा बन रहे हैं पर असल में उनका हमारे जीवन पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं है।
ये सेलतंत्र है!
अभी-अभी रेडियो सुन रहा था तो ये विचार उठा कि ये जो विज्ञापन हैं, उनमें से ९०% कोई न कोई सेल के बारे में ही है। कोई आपको ५०% की छूट दे रहा है, तो कोई आपको एक-पे-दस मुफ्त दे रहा है, तो कोई आपको मुफ्त की हवा भी बेच रहा है। कहने का अर्थ … Continue reading ये सेलतंत्र है!
खड़े रहो! खड़े रहो!
हमारे खड़े रहने की आदत पर कुछ विचार..
सब धंधा है!
भईया, हमारी मानो तो सब बिजनस है, बिजनस। जहाँ आँख गड़ती है, कारोबार ही नज़र आता है। जहाँ चलता हूँ, लोग दर-मुलाई करते हुए पाए जाते हैं। घर-चौराहा-शहर-ऑफिस-संसद-सरहद, हर जगह धंधे की बू आती है। सबको जैसे मुनाफा कमाना है और उसी मुनाफे से स्वर्ग की टिकट का बिजनस करना है।भौतिकवादिता का उड़ता तीर जिस … Continue reading सब धंधा है!