भारत एक रुदन प्रधान देश है

एक मित्र कई वर्षों बाद मिला। अच्छी खासी उन्नति कर ली थी बंदे ने, जो उसके पेट की आकार से स्पष्ट था। कुशल-क्षेम का आदान-प्रदान हुआ और फिर बातें जीवन की होने लगीं तो फटाक से उसका रुदन आरम्भ हो चला कि यार ये परेशानी है, वो दिक्कत है, फलानी समस्या है, ढिकानी कठिनाई है। उसके मन-मस्तिष्क पर समाज का दबाव और सोशल मीडिया का प्रभाव साफ झलक रहा था कि कैसे वो उतना सफल नहीं हो पाया है जितना वो चाहता है (दरअसल वो कह यह रहा था कि वो उतना सफल नहीं हो पाया जितना समाज को उससे अपेक्षा थी)।

तो यह रुदन भारत के हर वर्ग, हर समाज में व्याप्त है जिसके बुलबुले सोशल मीडिया की गर्म भट्टी में उबल-उबलकर यदा-कदा सदा फूटते रहते हैं। नेता इसलिए रोते रहते हैं कि वो बड़े नेता नहीं बन पा रहे, वो बड़ा घोटाला नहीं कर पा रहे। कि वो आम जनता को पहले की तरह खून के आँसू नहीं रुला पा रहे हैं क्योंकि जनता हो गई है समझदार और उन पर अपने अंगूठे की छाप न लगाकर उन नेताओं के अंगूठे छाप होने की पुष्टि कर रही है।

जनता तो खैर चिरकाल से रुदन प्रेमी रही है या यूँ भी कह सकते हैं कि उसे रुदन विवश बनाया गया है। इतिहास इस बात का प्रबुद्ध साक्षी है कि काल कोई भी हो, राजा कोई भी हो, नेता कोई भी हो, सरदार कोई भी हो – जनता का प्रमुख काम जी भर के रोना ही रहा है। काश ऐसी कोई तकनीक का अविष्कार हुआ होता जो इन आँसुओं की बहती नदियों को शुद्ध जल में परिवर्तित कर सकता तो दुनिया भर में सूखे की मार किसी भी काल में न पड़ती।

और इधर व्यापारी रो रहे हैं कि धंधा मंदा है। कर्मचारी रो रहे हैं कि आय को लगी हाय है। दोनों एक दूसरे को कोसते रहते हैं और यह कुसना-कोसना उफन-उफन कर इनके व्यक्तिगत जीवन में भी दिखता है और रुदन का यह अभेद्य चक्र निरंतर चलता रहता है।

शिक्षक कुढ़े पड़े हैं कि काम बहुत है और वेतन कुछ काम का नहीं है। वो कहते हैं छात्र हर वर्ष बुरे से बदतर हुए जा रहे हैं और उनकी शिक्षा पर भट्टा बिठा रहे हैं। छात्रों का अलग रोना है कि पढ़ाई बहुत भारी है और समय की मारामारी है। वो कहते हैं कि शिक्षक ही अच्छे नहीं बचे और वो बस वेतन की मिठाई के लिए खानापूर्ति कर रहे हैं। शिक्षा बेचारी कोने में बैठी सिसक रही है।

गृहिणियों का अचल रुदन यदि न चले तो ९०% टीवी धारावाहिकों का भट्टा बैठ जाएगा और पूरा व्यापार ठप्प पड़ जाएगा इसलिए उनका रोना देश की अर्थव्यवस्था के लिए अत्यावश्यक है। वैसे भी उनके विलाप के कई पहलू और कारण हैं इसलिए कारकों की कमी कभी नहीं होती और उनका और उनके परिवारों का मनोरुदन भारत के भ्रष्टाचार की तरह कभी समाप्त नहीं होता है।

कुल मिलाकर बात यह है कि भारत अब एक कृषि प्रधान देश नहीं रहा है। अब यह रुदन प्रधान देश है क्योंकि रोने से लाखों परिवारों का घर भी चल रहा है – यह तो आपको सोशल मीडिया पर भली-भाँति विदित हो रहा होगा। यदि सरकार चाहे तो इतने लाखों विवश-कर (विवश टैक्स) के ऊपर एक रुदन कर और लगा दे। इससे होगा यह कि रोने वाली जनता से और माल लूटा जा सकेगा और जब वो लुटेंगे तो और रोएँगे यानी कि सरकारी कोष फिर कभी खाली होगा ही नहीं। है ना एकदम रुला देने वाला आईडिया?

भईया, भारत अवसरों का देश है और यहाँ हर पग पर अवसर ही अवसर हैं, बस आपको उन्हें पकड़ने की कला आनी चाहिए और फिर आपको कभी नहीं रोना पड़ेगा। पर यदि आप सच्चे भारतीय हैं तो रुदन कला आपको आनी ही चाहिए और यदि किसी कारणवश यह धुलने लगे, मिटने लगे, फिसलने लगे तो किसी रोंदू व्यक्ति के सान्निध्य में जाइए और धुले हुए रुदन रंग को फिर से रंगाइये!

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