घर से दूर, मंजिल के पास – हम बिट्सियन

यह पोस्ट उन सभी लोगों के लिए हैं जो इस त्यौहार के माहौल में अपने और अपने रिश्तेदारों से दूर हैं | मैं भी घर से दूर हूँ लेकिन आज बिट्स के पूजा मैदान में जा कर पुरानी यादें फ़िर से ताज़ा हो गईं |

फ़िर से वो श्रद्धा के साथ माँ भवानी के सामने नतमस्तक होना,वो बंगाल, जो की यहाँ से कोसों दूर है, वहां की चहल-पहल का एक छोटा सा नमूना, थोड़ी-थोड़ी भीड़ में बढ़ता कोलाहल, लोगों के बीच हँसी-ठहाके, बच्चों का बेफिक्र इधर-उधर दौड़ लगाना और वो गुब्बारे को देख कर अनायास ही रो पड़ना, छोटों का आदर के साथ बड़ों के पाँव छूना और बड़ों का भी उतने ही प्यार से उनके सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देना, वो धीरे-धीरे आरती के बाद का धुंआ पंडाल में चारों ओर उड़ना और उसकी महकती खुशबु जैसे शरीर के हर कण-कण को भेदती हुई ह्रदय में प्रवेश कर रही हो, वो घंटी का पूरे ज़ोर से बजना जो की बदन की हर रुकावट को भेदती हुई मस्तिष्क के एक कोने में जा कर गूंजने लगती है, वो पंडित का अपने पारंपरिक तरीके के वस्त्र पहनना और पूरे एकाग्रता के साथ आरती में ध्यान लगा होना…यह सब पूजा पंडाल और उसके आस-पास के हाल-चाल थे |

थोड़ा आगे भड़ते ही पता चला की एक सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होने वाला है | हम भी अपने पैर जमा कर बैठ गए और कार्यक्रम का लुत्फ़ उठाया | अचानक से बैठे-बैठे ही यह ख्याल आया कि स्कूल या घर के कॉलोनी में हम भी जब कार्यक्रम दिया करते थे, तो अपनी बारी के इंतज़ार में दिल धक्-धक् करने लगता था | आज यहाँ जब छोटे-छोटे बच्चे जब अपना कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे थे तो सभी यादें पानी की एक तरंग बनकर पूरे शरीर को भिगो गई और मैं जैसे वहां खड़ा हुआ बस यह कह रहा हूँ…”अरे खत्म हो गया? … ज़रा देखो यादों के कुछ और फव्वारे बाकी हों शायद…” लेकिन शायद यहीं उसका अंत था…
“अगर सभी यादें एक ही बार में लौट आएं तो उनका महत्त्व भी तो ख़त्म हो जाएगा ना ?

इसके बाद मैं नैनो की दिशा में चल पड़ा..यानी बंगाल से गुजरात…FD-II QT ..में गुर्जरी [ गुजरात की असोसिएशन ] ने डांडिया नाईट का आयोजन किया था..मैं वैसे तो केवल देखने ही गया था पर जा कर अपने दोस्त के प्रस्ताव को मना ना कर सका | तो जोश में मैंने भी कुछ घंटे भर डांडिया तोडी | जिन लोगों ने इसे छोड़ा, उनके लिए मेरे ख्याल से दुर्भाग्य ही रहा | कमरे पे कंप्यूटर के सामने बैठकर आप सब कुछ तो नहीं पा सकते हैं ना? मैं आप लोगों से गुजारिश करता हूँ कि बाहर आ कर इन सब चीज़ों का भी आनंद लें..शायद आज से दो-तीन साल पहले जब हमारे कमरों पर कंप्यूटर नहीं हुआ करते थे तो यही सब छोटी-छोटी चीजें हमारी ज़िन्दगी को रंगीन बनाती थी, इसका महत्त्व समझाती थी…यह तो आपके ही ऊपर है कि आप भी इस बेरंग होती ज़िन्दगी में कुछ रंग भरना चाहते हैं कि नहीं ?

और उन लोगों के लिए जो कहते हैं कि आज की युवा पीढ़ी पश्चिमी संस्कृति से भ्रमित हो रही है, आप केवल एक दिन के लिए यहाँ आ कर देखिये | अगर आपको हम सब बिट्सियन ने ग़लत नहीं ठहरा दिया तो कम-स-कम मैं अपने आप को बिट्सियन कहलाने से शर्मा जाऊंगा..ये मेरा वादा है आपसे |

हम यहाँ पढ़ाई के साथ भी अपनी संस्कृति को बरकरार रखने की जितनी कोशिश करते हैं, शायद उतनी मेहनत तो उन्होंने भी नहीं की होगी जिन्होनें इस संस्कृति की नींव रखी है |


सभी बिट्सियन को मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई और आशा करता हूँ की वो इसी जोश के साथ हमारी अमूल्य संस्कृति को बरकरार रखने के लिए हमेशा ही कार्यरत रहेंगे |
-प्रतीक

4 thoughts on “घर से दूर, मंजिल के पास – हम बिट्सियन

  1. कोलकाता छोडे तो कोई ३० वर्ष हो गये पर आपके लेखन से दुर्गा पूजा की याद ताजा हो गई । और यादें का क्या है अपनी मर्जी से आती जाती हैं , कभी कोई कभी कोई ।

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  2. सबसे अच्छा तभी लगता है जब आप जैसे महानुभावों से ब्लॉग के जरिये गुफ्तगू होती है | धन्यवाद समय निकालकर ब्लॉग पढने के लिए |

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  3. यादों का खज़ाना भरा रहता है,जब मर्ज़ी खोलो और डूब जाओ उसमे। आपको दशहरे की बहुत-बहुत बधाई।

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  4. प्रतीक,कुछ दिन पहले अनायास ही तुम्हारे ब्लॉग पर नजर पड़ी. आश्चर्य और खुशी के मिश्रित भाव मन में उमड़ पड़े. आश्चर्य इसलिए कि आज के छात्रों में जहाँ हिन्दी एक मजाक कि वस्तु बनती जा रही है, जहाँ छात्र हिन्दी से अनभिज्ञता को बड़ी खुशी और शान से लोगो के सामने प्रस्तुत करते है, वहां तुम्हारा ये ब्लॉग वाकई एक मिसाल कि तरह है. और खुशी का अंदाजा तो तुम इस बात से लगा सकते हो कि मैंने एक ही दिन में तुम्हारी सारी रचनाएँ पढ़ डाली. हालाँकि मेरी भी हिन्दी बहुत अच्छी नहीं है, पर हिन्दी के प्रति सम्मान हमेशा से मेरे मन में रहा है. और जब वो सम्मान मैं दूसरे लोगो में देखता हू, तो अन्दर ही अन्दर खुशी कि लहरे हिलोरें मारने लगती है.तुम्हारे दुर्गा पूजा के विवरण ने तो बचपन को साक्षात् मेरे सामने लाकर खड़ा कर दिया. बिहार का होने के कारण, बचपन से ही दुर्गा पूजा काफ़ी धूम धाम से मनाने कि परम्परा रही है. हमारे मोहल्ले में वो आरती प्रतियोगिता, ढोल नगाड़े कि धूम, नवमी के दिन वो खिचडी के प्रसाद के लिए घंटो लाइन में लगना, सब कुछ एक पल में आँख के सामने तैर गया. मैं तुम्हारी बात से पूरी तरह सहमत हूँ. आज भी हमारी संस्कृति सर्वोपरि है. मुझे तो लगता है, आज एक व्यक्ति के रूप में मैं जो कुछ भी हूँ, उसमे काफ़ी बड़ा योगदान हमारी संस्कृति का भी है.मैं तुम्हारे इस कदम से बहुत ज्यादा प्रभावित हूँ. आशा है कि भविष्य में अपनी रचनाओ से तुम औरों को भी प्रभावित करते रहोगे. रॉबिन केशव

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