अभी-अभी रेडियो सुन रहा था तो ये विचार उठा कि ये जो विज्ञापन हैं, उनमें से ९०% कोई न कोई सेल के बारे में ही है। कोई आपको ५०% की छूट दे रहा है, तो कोई आपको एक-पे-दस मुफ्त दे रहा है, तो कोई आपको मुफ्त की हवा भी बेच रहा है। कहने का अर्थ ये है कि बेचने की जो होड़ है, वो अपने चरम पर है।
खैर, ऐसा नहीं है कि रेडियो सुनकर ही ये ख्याल आया है। ये ख्याल तो अब उठते-बैठते, जागते-सोते, दौड़ते-रुकते, खाते-पीते आ ही रहा है। किन्तु दिक्कत ये हो गई है कि हमने साल के किसी भी दिन को इस भौतिकवाद के जाल से परे नहीं रखा है। कम्पनियाँ साल का हर दिन अब इसी जुगत में निकाल रही हैं कि अपना माल अपने ग्राहकों को किसी भी बहाने कैसे चेपें। वो साम-दाम-भेद का इस्तेमाल कर रही है। दण्ड का प्रत्यक्ष इस्तेमाल अभी नहीं हो पाया है जो ग्राहकों के लिए अच्छी खबर है। पर दण्ड तो सामान खरीदने के बाद मिल ही जाता है तो उसकी पूर्ति बाद में हो जाती है।
अगर आज के समय में कोई भी ऑनलाइन व्यापार करने वाली कंपनी के विज्ञापन देखेंगे/सुनेंगे तो कहीं न कहीं उसमें गणतंत्र (रिपब्लिक) का हूल दे कर ये अपना माल उपभोक्ताओं पर उड़ेलने की पूरी कोशिश कर रही हैं। वहीँ अगर ठण्डे दिमाग से, बिना मोबाइल पर टकटकी लगाए, बिना कंप्यूटर के सामने आँखें गाड़े, अगर २ मिनट के लिए भी सोचें तो गणतंत्र और कुछ खरीदने का कोई नाता ही नहीं है, पर ऐसी कंपनियों ने अपने धंधे को फलने-फूलने के लिए इन दोनों को भी ज़बरदस्ती चिपका दिया है। वैसे बनाते तो वो भी सेल के नाम पर लोगों को उल्लू ही हैं, पर जनता-जनार्दन को लगता है कि वो रस्ते का माल सस्ते में पा रही है।
इन कम्पनियों की वकालत करें तो यह कह सकते हैं कि उन्होंने अंतरजाल पर ऐसा तंत्र बिछाया है जिससे कि जन-जन को उन्होंने अपने काबू में कर लिया है और अब ये कम्पनियाँ ही इस तंत्र और जन-जन का इस्तेमाल कर असली जनतंत्र मना रही है। और हम बेचारे ग्राहक अब सेलतंत्र को ही प्रसाद-स्वरूप स्वीकार कर अपने भोले मन को तसल्ली दे रहे हैं।
जहाँ आज से १५-२० साल पहले आप महीने में जो ‘बचा’ रहे हैं, वो आपकी कमाई होती थी, आज के समय में आप महीने के अंत तक किसी तरह जीवित बच रहे हैं, वो ही आपकी कमाई है। जब तक आप अपने आपको इस सेलतंत्र से मुक्त नहीं करेंगे, तब तक आपकी जीवन लीला ये कम्पनियाँ ही लिखेंगी!
अब चाहे स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस, इनको हम लम्बे साप्ताहांत (लॉन्ग वीकेंड) में तब्दील करने की जुगत में लगे रहते हैं और ये महज़ छुट्टी के दिन ही माने जाने लगे हैं। और एक बात तो ये भी है कि अगर कल सड़क पर जा कर पूछें कि आज कौन सा दिवस है तो आधे से ज़्यादा लोग तो इसी में उलझ जाएँगे कि स्वतंत्रता दिवस है या गणतंत्र दिवस। पर हो सकता है कि किसी विज्ञापन को याद करके ही कोई सटीक बता दे कि कौन सा दिवस है।
भावार्थ यह है कि ये सेलतंत्र की नक़ल हमने पश्चिम से कर तो ली है पर क्या यही हमारा गंतव्य है? कभी-कभार सेल लगने पर जो आनंद हमें मिलता था, वो अब धूमिल हो चुका है और हम जिस ‘कमाओ और बचाओ‘ की परम्परा में जी रहे थे, वो अब ‘कमाओ और उड़ाओ‘ की परम्परा बनता दिख रहा है। सवाल आप ही से है कि क्या आप सेलतंत्र के जाल में ही फँसे रहना चाहते हैं या फिर आप उससे निकलकर जनतंत्र का जश्न मनाना चाहते हैं?