राय का रायता

जब अंतरजाल का खोला डब्बा
रह गया मैं हक्का-बक्का

किसी को होड़ थी नाचने की
किसी की दौड़ थी हँसाने की

राजनीति पर था किसी का शिकंजा
किसी का खेलों पर था पंजा

चित्रकारी किसी ने कुशल दिखाई
नकल में अकल दूजे ने लगाई

मेला-रेला-खेला देखा
विदूषक होने की न सीमा रेखा

झट जो मन में बातें आती
राय बनाकर परोसी जातीं

न सोच, समझ, विमर्श का संयम
अंध-दौड़ में तन-मन से मगन

इस जमघट में जब खुद को पाता
थोड़ा घबराता, थोड़ा सकपकाता

क्या इस शोर का हिस्सा होना
सूचक है किसी का जीवित होना?

यदि कोई नहीं इस शब्द जाल में
क्या वो रहता है पाताल में?

राय नहीं कोई यहाँ जो रखता
क्या जीवन का स्वाद न चखता?

उधेड़बुन थी यह मेरे अन्दर
मैं मानव हूँ, या कि बन्दर?

पर फिर भीतर स्वर ये जगे
क्या तुम भी रहना चाहते हो ठगे?

‘नहीं’, रहना नहीं इस जाल में
नित थमते-उठते इस बवाल में

चलो, एक ऐसी दुनिया बनाएँ
होड़-प्रतिस्पर्धा रहित हो जाएँ

विचारों को विचारों से टकराएँ
पर मन का मेल कभी न भुलाएँ

जहाँ ‘पहले मैं’ के स्वर न गूँजें
मीठे स्वर में मिलकर कूजें

जहाँ राय-विमुखता भी एक राय हो
परस्पर ख़ुशी की जैसे गर्म चाय हो

जहाँ जीवन थोड़ी थमी सी लगे
अभिभूत आँखों में नमी सी लगे

चलो कुछ अच्छा सोचा जाए
राय का रायता न फैलाएँ!

2 thoughts on “राय का रायता

  1. जनसत्ता में लेख व कविताएँ छपने हेतु कैसे भेज सकते हैं
    कृपया मार्गदर्शन करें

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