अंतरजाल का जाल

अंतरजाल, आज थोड़े से भी पढ़े लिखे लोगों के लिए उनके जीवन का अभिन्न अंग हो गया है और पढ़े-लिखे ही क्यों, अशिक्षित लोगों के लिए भी यह कोई माया से कम नहीं है जो अपने जादू से उनको मोह लेती है।कम्प्युटर का प्रचलन भारत में एक विस्तृत पैमाने पर करीब ८-१० साल पहले ही … Continue reading अंतरजाल का जाल

दिखावा और हम – कब बदलेंगे हम?

लो एक साल और निकल लिया सस्ते में और हमें तो माधुरी भी नहीं मिली रस्ते में..कई लोगों ने सरकार के खिलाफ विरोध में नए साल के जश्नों को एक तरफ कर दिया। काबिल-ए-तारीफ़ है उनका जज्बा और हक़ की लड़ाई। और वहीँ कितने ही लोगों ने हर साल की तरह दारु पी कर हुडदंग … Continue reading दिखावा और हम – कब बदलेंगे हम?

भौतिकवाद की दोस्ती

बात ज्यादा पुरानी नहीं है, या यूँ कहें की ज़हन में तरोताज़ा है।कॉलेज का प्रथम वर्ष समाप्ति पर था। कई नए दोस्त बने थे, उनमें से धीरज भी एक था।प्रथम सेमेस्टर की समाप्ति पर मैं घर से कीबोर्ड (पियानो) खरीद लाया था क्योंकि हारमोनियम के बाद अब यह सीखने की बड़ी इच्छा थी।एक दफे मैं और धीरज क्लास से … Continue reading भौतिकवाद की दोस्ती

अपने

सोचा करता था वह "अपने" लोगों के बारे मेंवही जिनको वो कई रिश्तों से पहचानता थामाँ, पिता, भाई, बहन, चाचा, दोस्त, जिगरी दोस्त, चड्डी दोस्त.."अपने"यह शब्द भेदती थी उसे कभी..क्या यह शब्द दुनिया का छलावा नहीं है?इस शब्द ने कईयों की दुनिया नहीं उजाड़ी है?परफ़िरक्या इन्हीं "अपनों" ने उसकी ये ज़िंदगी हसीन नहीं बनाई है?क्या … Continue reading अपने

सामंजस्य

यह आलेख जनसत्ता में ३ दिसम्बर को छपा था। इ-संस्कार यहाँ पढ़ें। "सामंजस्य" अर्थात 'तालमेल', एक ऐसा शब्द है जिसकी सही पहचान और सही परख हम-आप करने से चूके जा रहे हैं। यह एक ऐसा शब्द है जो इस श्रृष्टि के पूरे वजूद को अपने अंदर समेटे हुए है। पर इस भाग-दौड़ वाली ज़िन्दगी (ज़िन्दगी? … Continue reading सामंजस्य

भ्रष्ट ज्ञान

यह लेख ६ अक्टूबर २०१२ को जनसत्ता में छपा था। ई-पेपर पढने के लिए यहाँ क्लिक करें। (संतोष त्रिवेदी जी का फिर से एक बार धन्यवाद!)"ज्ञानी", एक ऐसा शब्द है जिससे हम-आप खुद को पढ़े लिखे समझने वाले लोग समझते हैं कि अच्छी तरह से समझते हैं, भांपते हैं। पर क्या सच में आप इतने … Continue reading भ्रष्ट ज्ञान

संस्कार

रमेश बस स्टॉप पे खड़ा बस का इंतज़ार कर रहा था। दिन काफी व्यस्त रहा था ऑफिस में।स्टॉप से थोड़ा आगे बाईं ओर 2 मोहतरमाएं खड़ी थीं। एक के सलवार-दुपट्टे और एक के जींस-टॉप से समझ आ गया कि ये माँ-बेटी हैं और ज़रूर ही अपनी कार का इंतज़ार कर रही हैं। और दोनों के पहनावे से … Continue reading संस्कार

त्यौहार, मौज-मस्ती, ज़िन्दगी!

त्यौहारों का मौसम फिर से शुरू हो रहा है और हाँ छुट्टी का मौसम भी.. :)बारिश के अकाल की तरह छुट्टियों का यह अकाल हर नौकरी-पेशा इंसान को तंग करता है..अब त्यौहारों का मौसम भी एक ऐसे त्यौहार से जिसकी हमारी समाज में जड़ें बहुत गड़ी हुई हैं और जो समय के साथ-साथ अपने रंग … Continue reading त्यौहार, मौज-मस्ती, ज़िन्दगी!

बदलाव का समय

करीब करीब 2 महीने हो गए हैं पोस्ट किये हुए । पता नहीं कई विषय भी दिमाग में उमड़ते-घुमड़ते रहे पर उंगल-दबाव-यंत्र (की-बोर्ड) के ज़रिये ब्लॉग पर नहीं चिपक पाए ।हर एक की ज़िन्दगी में समय-समय पर बदलाव आते रहते हैं और फिलहाल मैं भी कुछ ऐसे ही बदलाव के दौर के थपेड़ों को झेलता हुआ उस अंतिम लहर का इंतज़ार … Continue reading बदलाव का समय

सामाजिक खेल

समाज, एक ऐसा शब्द जो दर-ब-दर हमारे आस पास घूमता है.. मंडराता है.. डराता है.. धमकाता है.. बांधे रखता है.. इस शब्द से रिश्ता ज़िन्दगी के पहले अक्षर से जुड़ जाता है.. हम क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, कैसे उठे-बैठते हैं, कैसे चलते हैं, क्या कार्य करते हैं, किससे मिलते हैं, कहाँ जाते हैं, … Continue reading सामाजिक खेल